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सत्संगनुं फल अलभ्य छे

सत्संगनुं फल अलभ्य छे


श्री गुंसाइजीना ऐक सेवक ऐक नानकडा गामडामां रहे, जयां सत्संग नहोतो. ठाकोरजीनी सेवा पहोंची रोज रात्रे पासेना मोटा गाममां सत्संग माटे जाय. ऐक वखत चोमासानी मेधली राते अंधारामां रस्तो चूकी गया. बीजे रस्ते चढ्या . त्यां तलावना किनारे एेक ब्रह्मराक्षस सामे आवीने उभो . अे कहे तमने खाइ जाउं. वैष्णवे कह्युं: भले , तारा शरीरनी भुख मारा शरीरथी भागती होय तो मने आनंदथशे. पण मने आजनी रात भगवदवाताँ – सत्संगनो आनंद लइ आववा दे. आजे ऐकादशीनी रात छे. ब्रह्मराक्षस मानी गयो. वैष्णवे जरा पण चिंतातूर बन्या विना ,स्वस्थ चित्तथी, आनंदथी आखी रात भगवदवाताँनो लाभ ले छे. सवारे अे मागेँ पाछा आवी, ब्रह्मराक्षस ने बोलावीने कहे छे : मने खाईजा ब्रह्मराशस कहे छे: मारे हवे तमने खावा नथी, तमे भगवदीय छो. माटे मारो उद्घार थाय अेटला माटे गईकालनी राते तमे जे सत्संग कयोँ छे तेनुं फल मने आपी दो. वैष्णव कहे छे : अे फल दुर्लभ छे. अे तने नही अपाय. बहु खेंचताण चाले छे. छेवटे ब्रह्मराक्षस अेम कहे छे: भले , त्यां कीतँन वखते हाथनी ताली पाडीने तमे घणा ताल आप्या हशे, तेमांथी एेक ज तालनुं फल मने आपो . प्रभुनी प्रेरणा थवाथी वैष्णवे एेक ज तालनुं फल आप्युं अने अे ब्रह्मराक्षसनी योनि छूटी गई, अेनो तत्काल मोक्ष थइ गयो.


जो सत्संगमां प्रेमथी , एेकचित्तथी थयेलां कीतँनना एेक तालनुं आवुं अलभ्य फल होय, तो आखाये सत्संगनुं फल केवुं होय! माटे श्री हरिरायचरण आज्ञा करे छे के सत्संगमां जे समय वीते उत्तम समय जाणवो

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