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"अवैष्णवानां श्रीभागवत् श्रवणं वृक्ष जन्मत्रयं।"

६६ अपराध अपने यहां गिनाएं हैं।

उनमे से १ अपराध है: "अवैष्णवानां श्रीभागवत् श्रवणं वृक्ष जन्मत्रयं।"

अवैष्णव के मुख से भागवत का श्रवण करने पर तीन जन्म तक वृक्षयोनि की प्राप्ति।


भगवत् नाम सुनने से दोष कैसा?

यह संदेह होता है इसके समाधान मे हरिरायजी यों कहते है कि मर्यादा मे मुक्तिफल है पर पुष्टि मे एकांगी पुष्टिभक्ति फल है जो आचार्यजी के आश्रय से ही सिद्ध होती है।

तो आश्रय एवं अन्याश्रय का भेद २ प्रकार से यहां बता रहे हैं जो अवैष्णव के मुख से सुनी हुई भागवतकथा आचार्यजी के संबंध बिना की होने से १-श्रवण अन्याश्रय कराती है अवैष्णव के मुख से सुनने पर उसकी झूठन कर्ण द्वारा ह्रदय मे जाने से महाप्रभुजी के आश्रय को एसी कथा शिथिल करती है।इसलिये उन्हीं के मुख से सुननी जिससे ह्रदय मे दृढ़ता आवे।


अन्यमार्गीय से न तो भगवद् धर्म की बात न तो पूछनी न ही कहनी।

कभी एसा मौका लगे तो मौन रहना उचित है "मौंनं सर्वार्थसाधकम्" एसे समय मौन रहना ही आचार्यजी के आश्रय का साधन है।


आचार्यजी के सेवक मुकुंददास यद्यपि दृढ़ थे यदि अन्यमार्गिय से सुन भी लेते तो उनको बाधक नहीं होती पर हरिरायजी ने वार्ता के मिष सभी पुष्टिजीवों को शिक्षा दी कि मन यदि एसों के वचनों से विश्वास कर उसके बताये साधन मे कहीं लगे तो कच्ची दशा वाले वैष्णव का बिगार हो जाये।


इसलिये एसे वैष्णवों को तो आचार्यजी के संबंधी से ही भगवद् धर्म की चर्चा करनी. यहां यह भी परख जरूरी है कि भगवद् कथा कहने वाला आचार्यजी संबंधी स्वयं को जाहिर कर रहा है पर कहीं आचार्यजी से विमुख तो कुछ कह नहीं रहा?


एसा व्यक्ति भले ही अपने आपको वैष्णव claim करे पर एसों को भी अन्यमार्गिय की क्ष्रेणी में ही रखना चाहिये। उनके संन्मुख भी अपना भगवद् धर्म छुपा लेना चाहिये जैसे मुकुंददासजी चोपड़ के मिष से अपना पुष्टिमार्गीय भगवद् धर्म छुपा के रखते थे अन्यथा मौन रहते. "मौनं सर्वार्थसाधकम्"


2- एसे अन्यमार्गियों के संग से होता दूसरा अन्याश्रय नेत्र का अन्याश्रय जो कि महादोष।

भक्त का महाप्रभुजी मे दृढ़आश्रय का स्वरूप उसके ह्रदयकमल की पंखुड़ी है।


व भक्त का महाप्रभुजी मे स्नेह उस ह्रदय कमल के पराग का स्वरूप है एसा ह्रदयकमल श्रीठाकुरजी के बिराजने का स्थल होता है ओर जैसे श्रीआचार्यजी संबंधी से श्रवण द्वारा जो आनंद ह्रदय मे प्रवेश करता है उसी तरह से नैत्रों द्वारा भी जो रस का आनंद ह्रदय तक पहुंचता है वह यदि आचार्यजी संबंधी रहा तो ह्रदय कमल के आश्रय को पोषण प्रदान करता है वरना नेत्रों का तो स्वभाव ही होता है कि सुंदर वस्तु कुछ भी देखकर ह्रदय मे आनंद ही होता है। इसलिये हरिरायजी आज्ञा करते हैं कि "ओर ठोर के दरसन तथा लौकिक वैदिक संसार संबंधी आछी वस्तु देखि के श्रीआचार्यजी के संबंध बिना मे आनंद आवे सोउ अन्याश्रय।"

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