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व्रज – मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया

व्रज – मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया

Wednesday, 16 December 2020


बनठन कहां चले अैसी को मन भायी सांवरेसे कुंवर कन्हाई ।

मुख तो सोहे जैसे दूजको चंदा छिप छिप देत दिखाई ।।१।।

चले ही जाओ नेक ठाड़े रहो किन अैसी शिख शिखाई ।

नंददास प्रभु अबन बनेगी निकस जाय ठकुराई ।।२।।

( आज शयन समय प्रभु के सनमुख गाये जाने वाला अद्भुत कीर्तन )


दूज को चंदा (चंदा उगे को शृंगार)


विशेष – नित्यलीलास्थ तिलकायत श्री गोवर्धनलालजी महाराज ने तत्कालीन परचारक श्री दामोदरलालजी की भावना के आधार पर चन्द्रमा के पदों पर आधारित यह ‘पांच चन्द्र (पिछवाई पर, कतरा में, शीशफूल में, वक्षस्थल पर और स्वयं श्रीप्रभु का मुखचंद्र)’ (दूज को चंदा) चंदा उगे को शृंगार विक्रम संवत १९७४ में आज के दिन किया था.

तब से प्रतिवर्ष यह श्रृंगार आज के दिन धराया जाता है.


इस श्रृंगार के पीछे यह भावना है कि बालक श्रीकृष्ण ने मैया यशोदाजी से चन्द्रमा को लेने की जिद की तब यशोदाजी ने उन्हें ये पांच चंद्रमा बताये.


इसकी अन्य भावना यह है कि स्वामिनीजी नंदालय में आधा नीलाम्बर ओढ़कर अपने चन्द्र स्वरुप प्राण प्रिय प्रभु के दर्शन कर रहीं हैं.

प्रभु के चन्द्र समान मुखारविंद के भाव से यह श्रृंगार धराया जाता है (इस भाव का कीर्तन नीचे देखें).


सभी घटाओं की भांति आज भी श्रृंगार से राजभोग तक का सेवाक्रम अन्य दिनों की तुलना में कुछ जल्दी हो जाता है.


राजभोग दर्शन –


कीर्तन – (राग : तोड़ी)


आधो मुख नीलाम्बरसो ढांक्यो बिथुरी अलके सोहे l

एक दिसा मानो मकर चांदनी घन विजुरी मन मोहे ll 1 ll

कबहु करपल्लवसो केश निवारत निकसत ज्यों शशि जोहे l

‘सूरदास’ मदनमोहन ठाड़े निहारत त्रिभुवन में उपमा को है ll 2 ll


साज – श्रीजी में आज धरायी जाने वाली श्याम मखमल की पिछवाई में चन्द्रमा एवं तारों का सलमा-सितारा का रुपहली ज़रदोज़ी का काम किया हुआ है. श्री स्वामिनीजी एवं श्री चन्द्रावलीजी दोनों प्रभु के दोनों ओर फ़िरोज़ी रंग का नीलाम्बर ओढ़ कर खड़े हैं ऐसा सुन्दर चित्रांकन पिछवाई में किया गया है. गादी, तकिया एवं चरणचौकी पर सफेद बिछावट की जाती है.


वस्त्र – श्रीजी को आज बिना किनारी का रुपहली ज़री का सूथन, चोली, घेरदार वागा एवं मोजाजी धराये जाते हैं. ठाड़े वस्त्र मेघश्याम रंग के धराये जाते हैं.


श्रृंगार – आज प्रभु को छोटा (कमर तक) हल्का परन्तु कलात्मक श्रृंगार धराया जाता है. मोती के आभरण धराये जाते हैं.


श्रीमस्तक पर आज विशिष्ट श्रृंगार किया जाता है. रुपहली ज़री के चीरा (ज़री की पाग) के ऊपर सिरपैंच, चन्द्र घाट का कतरा एवं बायीं ओर शीशफूल के ऊपर भी चन्द्रमा धराया जाता है.

श्रीमस्तक पर अलख धराये जाते हैं.

दूज के चंद्रमा के आकार का जड़ाव स्वर्ण का हांस (जुगावाली) धराया जाता है एवं वक्षस्थल पर चन्द्रहार धराया जाता है.

श्रीकर्ण में कर्णफूल धराये जाते हैं.


सभी समय सफेद मनका की माला आती है. श्वेत एवं रंगबिरंगे पुष्पों की दो सुन्दर मालाजी धरायी जाती हैं.

श्रीहस्त में चांदी के वेणुजी एवं एक वेत्रजी धराये जाते हैं.

पट रुपहली ज़री का व गोटी चांदी की आती है.


संध्या-आरती दर्शन उपरांत प्रभु के श्रीकंठ के श्रृंगार बड़े कर हल्के आभरण धराये जाते हैं. श्रीमस्तक पर रुपहली लूम तुर्रा धराये जाते हैं.


आज दिनभर सभी समय में चन्द्रमा के भाव के कीर्तन गाये जाते हैं.

शयन समय एक अद्भुत कीर्तन प्रभु सम्मुख गाया जाता है -

बन ठन कहाजु चले लाल ऐसी को मन भायी

सांवरे हो कुंवर कनहाई...


आज के दिन भी संध्या-आरती व शयन की आरती सभी बत्तियां बुझा कर की जाती है. आरती की लौ की रौशनी में हीरे के आभरण व प्रभु के अद्भुत स्वरुप की अलौकिक छटा वास्तव में अद्वितीय होती है.

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